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आलेख: हिन्दी की पीड़ा सुनने वाला कोई नहीं

लेखक- विकास शर्मा, पूर्व पत्रकार व छ्त्तसीगढ़ स्टेट पॉवर कंपनी में जनसंपर्क अधिकारी हैं

  • हिन्दी में दस्तावेज पाने लगा रहे हैं गुहार पर प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग , बैंकिंग लोकपाल ने झाड़ा पल्ला
  • बीमा , बैंक से संबंधित कामकाज के लिए अंग्रेजी पर आश्रितता अब भी है बरकरार
  • हिन्दी दिवस और सप्ताह के आयोजनों से बाहर सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं में उपेक्षित है हिन्दी

हिन्दी दिवस का हल्ला देशभर में है। कई सरकारी और गैरसरकारी संस्थानों में हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह और पखवाड़े का आयोजन शुरू हो चुके हैं। विशेषकर बैंकों एवं अन्य वित्तीय संस्थानों में। पर इन्हीं संस्थानों में हिन्दी अपने सम्मान के लिए आज भी संघर्ष कर रही है। आम आदमी के लिए बैंकिंग और बीमा क्षेत्र में हिन्दी में कामकाज आज भी सरल और सुगम नहीं है। ऐसे में निजी क्षेत्र के बैंक और बीमा कंपनियों पर तो कोई नियंत्रण ही नहीं रहा है। और मजे की बात तो यह कि देश की कोई भी संस्था निजी बैंकों और बीमा कंपनियों पर कामकाज की भाषा को लेकर कोई नियंत्रण नहीं रखती है।

चौंकिए नहीं यह एकदम सच है। बीमा कंपनी से पॉलिसी बान्ड हिन्दी में उपलब्ध कराने को लेकर एक बीमा धारक ने देश की सभी संबंधित एजेंसियों का दरवाजा खटखटा लिया पर सभी जगह से निराशा हाथ लगी। बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीए), बैंकिंग लोकपाल, वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, राजभाषा विभाग,वित्त मंत्रालय और यहाँ तक प्रधानमंत्री कार्यालय भी हिन्दी का अधिकार नहीं दिला सका।

मैंने एक निजी बीमा कंपनी से टर्म बीमा पॉलिसी 2018 में खरीदी जिसकी पॉलिसी बान्ड पूरी तरह अंग्रेजी में थी। बान्ड की प्रति हिन्दी में उपलब्ध कराने को लेकर उन्होंने बीमा कंपनी के उपभोक्ता सेवा विभाग से संवाद किया जहाँ कई पत्राचार के बाद कंपनी ने दो टूक कह दिया कि वे हिन्दी में बान्ड उपलब्ध नहीं करा सकते । उपभोक्ता ने आईआरडीए में शिकायत की जहाँ से विस्तृत जानकारी मांगी गई बाद में प्राधिकरण द्वारा कंपनी को निर्देशित किया गया जिस पर फिर से कंपनी ने टका सा जवाब दे दिया। इसके बाद उपभोक्ता ने बैंकिंग लोकपाल के पास अपनी बात रखी जहाँ से पूरी जानकारी मांगी जाती रही ,बान्ड पेपर की प्रतियाँ समेत सभी पत्राचार की कॉपी मंगाई गई । एक बार बहस के लिए समय निर्धारित भी कर दिया गया बाद में इस विषय को अपने दायरे से बाहर का बता कर बैंकिंग लोकपाल ने पल्ला झाड़ दिया। इस पर भी निराश न होते हुए मैंने गृह मंत्री तथा शिक्षा मंत्रालय अधीन वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग को शिकायत की। चार माह तक कोई जानकारी प्राप्त नहीं होने पर प्रधानमंत्री कार्यालय में इस संबंध में शिकायत दर्ज की गई। आलम यह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय से भेजी गई शिकायत को कुछ दिनों बाद वित्त मंत्रालय अधीन वित्तीय सेवाएं विभाग ने इस आधार पर बंद कर दिया कि यह मामला निजी क्षेत्र की बीमा कंपनी से जुड़ा है और बैंक ने अपना जवाब दे दिया है। यह भी साफ किया कि अन्य संबंधित एजेंसियों ने शिकायतकर्ता को सूचित भी कर दिया है। वहीं राजभाषा विभाग ने अपने जवाब में इस मामले को वित्तीय सेवा विभाग के अंतर्गत बताकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पा ली ।

देश की राजभाषा , राजकाज की भाषा और उससे भी आगे जन-मन की भाषा हिन्दी काफी आगे बढ़ रही है। व्यापार और व्यवसाय , फिल्म और इंटरनेट तक हिन्दी का प्रभाव बढ़ा है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने सभी निर्णय क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध कराने की व्यवस्था भी शुरू कर दी है। हाल ही में अमेरिकी विदेश मंत्री की प्रवक्ता को सभी ने टेलीविजन पर फर्राटे से हिन्दी बोलते सुना और देखा होगा। ये सब हिन्दी के बढ़ते प्रभाव को दर्शाते हैं पर फिर क्या कारण है कि देश के अंदर हिन्दी असहाय हो जाती है जब बात बैंकिंग, न्यायालयीन समेत उच्च शिक्षा के क्षेत्रों में कामकाज करने की हो। ऐसे में भारत के अंदर 70 करोड़ से अधिक हिन्दी भाषी लोगों को कितना बेबस रहना होगा इसका जवाब उन लोगों से पूछा जाना चाहिए जो हिन्दी के सम्मान की रक्षा और सेवा की शपथ लेते थक नहीं रहे हैं।

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